Wednesday, September 17, 2008

खूनी हस्‍ताक्षर

कवि: गोपाल प्रसाद व्यास

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है”

यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया!
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना।”

हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो!”

सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे!

फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया।


कृष्ण की चेतावनी

- रामधारी सिंह “दिनकर”

वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा। फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे !

कवियत्री: सुभद्राकुमारी चौहान

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

Tuesday, September 16, 2008

वीरों की पूजा !

थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रातः ही मतवाले ?
कहाँ चले तुम राम नाम का पीताम्बर तन पर डाले ?
यहाँ प्रयाग न गंगा सागर, इधर न रामेश्वर काशी,
इधर किधर है तीर्थ तुम्हारा, कहाँ चले तुम सन्यासी |

मुझे न जाना गंगा सागर , मुझे न रामेश्वर काशी,
तीर्थ राज चित्तोड़ देखने को मेरी आँखें प्यासी,

To add missing part here...

सुंदरियों ने जहाँ देश हित जौहर व्रत करना सिखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ बच्चों ने भी मरना सिखा,

वहीँ जा रहा पूजा करने लेने सतियों की पद धूल ,
वहीँ हमारा दीप जलेगा , वहीँ चढेगा माला फूल !

रीढ़ की हड्डी !

मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार
एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार
जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार
नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता
ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्योता
दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर
कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल
जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान
सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़


Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

kabhi nahi jo tyaj sakte hain apna nyayochit adhikar
kabhi nahi jo seh sakte hain seesh nava kar atyachar
ek akele ho ya unke saath khadi ho bhari bheed
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

nirbhay ho kar ghoshit karte jo apne udgar vichar
jinki jivha par hota hain unke antar ka angar
nahi jinhe chup kar sakti hain aat taiyo kee shamsheer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

nahi jhuka karte jo duniya se karne ko samjhauta
unche se unche sapno ko dete rehte jo nyota
door dekhti jinki painee aankh bhavishyat ka tamcheer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

jo apne kandho se parvat se badh takkar lete hain
path kee badhao ko jinke paanv chunauti dete hain
jinko baandh nahi sakti hain lohe kee bedee zanjeer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

jo chalte hain apne chappar ke upar luka dharkar
haar jeet ka sauda karte prano kee baazi par
kood udadi mein nahi palat kar phir jo taaka karte teer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

jinko yeh avkash nahi hain dekhe kab taare anukool
jinko yeh parvah yeh nahi hain kab tak bhadra kab dikshool
jinke haathon kee chabook se chalti hain unki takdeer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

tum ho kaun, kaho jo mujhse sahi galat path lo toh jaan
soch soch kar pooch pooch kar bolo kab chalta toofan
sat path woh hain jis par apni chaati taane jaate veer
Main hoon unke saath khadi jo seedhi rakhte apni reedh

सर फ़रोशी की तमन्ना

-राम प्रसाद बिस्मिल

सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।

हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है।

हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न
जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम
ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है।

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब
होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है।

यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।

वह प्रदीप जो दीख रहा है

-रामधारी सिंह "दिनकर"

वह प्रदीप जो दीख रहा हइ झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

चिनगारी बन गयी लहू की बूँद जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिन्ह जगमग से।
शुरू हुई आराध्य-भुमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने दगमग से?
बाकी होश तभी तक जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बाइठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिनकर