कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम, तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल है
तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे प्यारे
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की, बंधा मूढ़ बन्धन में
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
Tuesday, September 16, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
Bahut sundar rachna
Post a Comment