Tuesday, September 16, 2008

पुष्प की अभिलाषा

माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूंथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में,बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव, पर, है हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।

1 comment:

rst said...

mujhe es kvita se bachpan bhut hi prem raha he